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Who is the political successor of Narendra Modi? , Amit Shah, Yogi or someone else? नरेंद्र मोदी का राजनीतिक उत्तराधिकारी कौन, अमित शाह, योगी या कोई और?

 


News Credit By BBC News हिंदी

नरेंद्र मोदी का राजनीतिक उत्तराधिकारी कौन, अमित शाह, योगी या कोई और?

'मोदी नहीं तो कौन?'
पान या चाय की दुकान हो, टूटी सड़क पर हिचकोले खाता टेम्पो हो या बादल छूता विमान हो. नरेंद्र मोदी के समर्थकों के बीच बीते सालों में सवाल एक ही रहा- अगर मोदी नहीं तो कौन?

पहले ये सवाल पूछा जाता था कि विपक्ष में कौन है जो मोदी की जगह ले सके, अब ये भी पूछा जाने लगा है कि बीजेपी में कौन है जो उनकी जगह ले सकता है.

तीसरी बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी की उम्र अगले साल 75 को छू लेगी.

75 की उम्र के राजनीतिक मायने को समझने के लिए कुछ तारीख़ों और कुछ बयानों पर गौर करिए.


अरविंद केजरीवाल ज़मानत पर बाहर आने के बाद.


जेल से बेल पर निकले केजरीवाल का सवाल
मई 2024 में दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल तिहाड़ जेल से ज़मानत पर बाहर निकले और बीजेपी को लेकर कई दावे किए.

मगर एक दावा ऐसा रहा, जिस पर अमित शाह और नरेंद्र मोदी तक को अपना पक्ष रखना पड़ा.



एक बात पर ग़ौर करें कि ये सभी बयान 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम आने से पहले के हैं.

बीजेपी का 400 पार का ख़्वाब टूट चुका है.

तो क्या इन चुनावी नतीजों के बाद मंथन कर रही बीजेपी में अब नए वारिस के बारे में चर्चा शुरू हो रही है? बीजेपी के अंदर नरेंद्र मोदी का वारिस कौन हो सकता है और इसमें आरएसएस यानी संघ की भूमिका क्या हो सकती है?

संघ की भूमिका इसलिए भी अहम है क्योंकि जानकारों के मुताबिक- जब बीजेपी कमज़ोर होती है, तब संघ की भूमिका पार्टी में बढ़ जाती है.

ये सवाल तब और अहम हो जाते हैं जब कई राजनीतिक जानकारों और घटनाक्रमों ने इन अटकलों को हवा दी है कि योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बीच राजनीतिक रस्साकशी चल रही है.


2019 में चुनावी नतीजे के बाद नरेंद्र मोदी, लाल कृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी


75 की उम्र में रिटायरमेंट वाली बात कहां से आई?
2014 में जब नरेंद्र मोदी पीएम बने तो लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे शीर्ष नेताओं को संसदीय बोर्ड या कैबिनेट में जगह नहीं दी गई. दोनों नेताओं को जगह तो मिली, मगर मार्गदर्शक मंडल में. आडवाणी तब 86 और जोशी 80 साल के थे.

जून 2016 में मध्य प्रदेश कैबिनेट विस्तार के दौरान 75 पार बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा, इसी तरह 80 पार पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं दी गई, हिमाचल के दिग्गज नेता शांता कुमार भी इसी तरह किनारे हो गए.

अमित शाह ने तब कहा था, "पार्टी में न तो कोई ऐसा नियम है और न ही परंपरा कि 75 साल की आयु पार कर चुके नेताओं को चुनाव लड़ने की अनुमति न दी जाए".

कर्नाटक के येदियुरप्पा इस मामले में एक मिसाल थे जो 80 पार होने के बाद भी राज्य में बीजेपी की कमान संभाल रहे थे.

2019 के लोकसभा चुनाव में 91 साल के आडवाणी और 86 साल के जोशी को बीजेपी ने टिकट नहीं दिया था.

अप्रैल 2019 में द वीक को दिए इंटरव्यू में अमित शाह ने कहा था, ''75 साल से ऊपर के किसी को टिकट नहीं दिया गया. ये पार्टी का फ़ैसला है.''

एक दूसरे पुराने वीडियो में शाह कहते दिखते हैं- "75 साल से ऊपर के नेताओं को ज़िम्मेदारी नहीं देने का फ़ैसला हुआ है."

हालांकि अतीत में कलराज मिश्र, नजमा हेपतुल्ला और अब जीतन राम मांझी 75 की उम्र पार करने के बाद भी मोदी कैबिनेट में जगह बनाने में सफल रहे. इनमें मांझी बीजेपी के नहीं हैं बल्कि उनकी पार्टी सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा है.


नरेंद्र मोदी


75 पार का नियम मोदी ख़ुद मानेंगे?
कभी मोदी के चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर ने एक इंटरव्यू में कहा- "ये नियम बनाया तो मोदी जी ने ही है, तो ये उन पर है कि वो इस नियम को मानेंगे या नहीं?"

संघ और बीजेपी की विचारधारा के समर्थक डॉ. सुर्वोकमल दत्ता बीबीसी से कहते हैं, "75 साल उम्र होने के बाद ये प्रधानमंत्री जी के ऊपर है कि वो इस पर विचार करना चाहते हैं या नहीं. मान लीजिए कि अगर स्वेच्छा से वो सोचते हैं कि उनको अवकाश लेना चाहिए तो ये उनकी निजी सोच होगी. इसमें संगठन की तरफ से मेरा मानना है या विचारधारा की तरफ से किसी तरह का प्रेशर नहीं है."

बीजेपी, संघ, अटल बिहारी वाजपेयी और योगी आदित्यनाथ पर वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी किताबें लिख चुके हैं.

विजय त्रिवेदी ने बीबीसी हिंदी से कहा, "75 की उम्र होने पर मोदी अपना कार्यकाल पूरा ना करें या संघ भी किसी और को चाह रहा हो, ऐसा नहीं लगता."

वरिष्ठ पत्रकार राकेश मोहन चतुर्वेदी कहते हैं, "नरेंद्र मोदी अभी काफी एक्टिव हैं. लगता है कि 2029 तक कंट्रोल नरेंद्र मोदी के हाथ में ही रहेगा."

मगर राजनीति अनिश्चितता से भरी होती है. ख़ास तौर पर बीजेपी और संघ के मामले में किसी भी चीज़ की तैयारी बहुत पहले से चालू हो चुकी होती है.

'संघम् शरणम् गच्छामि' किताब के लेखक विजय त्रिवेदी कहते हैं, "नंबर वन के लिए लड़ाई तो जारी नहीं है. मुझे लगता है कि खोज शुरू हो गई होगी. संघ को जो हम समझते हैं वे दूरगामी निर्णयों, नीतियों पर भरोसा करते हैं. एक लंबे समय तक के लिए क्या कार्य-योजना होगी, इस पर वो लगे रहते हैं. ज़ाहिर है, बीजेपी में पीएम मोदी के अलावा दूसरे नेतृत्व की तलाश भी संघ कर रहा होगा."

तो क्या संघ ने वाक़ई तैयारी शुरू कर दी है और यहां ये समझना ज़रूरी है कि बीते 10 सालों में नरेंद्र मोदी और संघ का रिश्ता कैसा रहा है.


क्रिस्टोफ़ जाफ्रेलॉट की किताब 'मोदीज़ इंडिया' के मुताबिक़, नरेंद्र आठ साल की उम्र में संघ से जुड़े. लक्ष्मणराव ईनामदार उर्फ़ वकील साहब से संपर्क में आए और 1972 में नरेंद्र मोदी संघ प्रचारक बन गए


संघ, बीजेपी और नरेंद्र मोदी
"वो आसमान में जितना चाहे ऊँची छलांग लगा लें, पर आना तो उन्हें धरती पर ही पड़ेगा."

ये बात आरएसएस के दूसरे सर संघचालक माधवराव गोलवलकर ने उन स्वयंसेवकों के लिए कही थी, जो नवगठित राजनीतिक दल जनसंघ में चले गए थे.

जनसंघ की जगह ही भारतीय जनता पार्टी 1980 के अप्रैल महीने में सामने आई.

गोलवलकर के इस बयान को कई दशक बीत चुके हैं मगर संघ अपने नेताओं को 'आसमान से धरती' पर लाने के कई उदाहरण अतीत में पेश कर चुका है.

बलराज मधोक, जसवंत सिंह, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी, ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं. कहा जाता है कि जब ये बड़े नेता बोझ बनने लगे तो संघ ने नीचे लाने में देर नहीं की.

संघ का ये रुख़ अब भी ऐसा ही नज़र आता है. हाल के दिनों में संघ प्रमुख मोहन भागवत के दो बयानों पर गौर कीजिए.


मोहन भागवत के ये दोनों बयान लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद आए हैं.

इन बयानों में कहीं भी पीएम मोदी का नाम नहीं लिया गया है, संघ की ओर से आने वाले संदेश परंपरागत तौर पर ऐसे ही होते हैं जिनके बारे में दावे से नहीं कहा जा सकता कि वे किसके बारे में हैं, लेकिन ये भी कहना कठिन है कि इन बयानों का पीएम मोदी से कोई ताल्लुक नहीं है.

संघ से जुड़े कई लोगों और जानकारों का कहना है कि इन चुनावों में संघ ने बीजेपी के लिए वैसे काम नहीं किया, जैसा पहले संघ किया करता रहा है.

संघ का सबसे अहम काम है मतदाताओं के बीच ऐसी राय और माहौल बनाना जो बीजेपी के हक़ में जाए.

ये संघ ही था जिसकी सहमति के साथ नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की रेस में साल 2013 में ख़ुद को आगे कर पाए थे.

फिर ऐसा क्या हुआ कि संघ प्रमुख के बयानों में कुछ लोगों ने नरेंद्र मोदी के लिए संकेत देखे और दूरियों की अटकलें तेज़ हुईं. 2024 के लोकसभा चुनाव में संघ ने 2019 या 2014 जितनी मदद बीजेपी की क्यों नहीं की?


मोहन भागवत


संघ और मोदी: दूरियों की बात कहां से आईं
मई 2024 में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने 'इंडियन एक्सप्रेस' को दिए इंटरव्यू में कहा, "शुरू में हम अक्षम होंगे, थोड़ा कम होंगे. आरएसएस की ज़रूरत पड़ती थी. आज हम बढ़ गए हैं. सक्षम हैं तो बीजेपी अपने-आपको चलाती है."

जानकारों का कहना है कि नड्डा के इस बयान से संघ में काफ़ी नाराज़गी देखने को मिली.

एक अख़बार के संपादक ने बीबीसी से कहा, "नड्डा के बयान से इस बार संघ में नाराज़गी थी. चुनाव के दौरान होने वाले प्रशिक्षण शिविर को भी इस बार नहीं टाला गया. किसी भी संघ वाले से बात करेंगे तो वो बताएंगे कि वो ना के बराबर निकले. हाँ, उन्होंने मध्य प्रदेश में जमकर मेहनत की क्योंकि शिवराज सिंह चौहान ने हमेशा आदर-सत्कार किया. वहां नतीजे भी दिखे."

मगर नाराज़गी सिर्फ़ इतनी भर नहीं है.

सात जून 2024 को नीतीश कुमार ने पुरानी संसद के सेंट्रल हॉल में कहा था- हमारी पार्टी जेडीयू बीजेपी संसदीय दल के नेता नरेंद्र मोदी को भारत के प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देती है.

नीतीश जिस संसदीय दल के नेता होने की बात मोदी के लिए कह रहे थे, क्या बीजेपी संसदीय दल की वो बैठक इस बार हुई?

बीजेपी-संघ को कवर करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने बीबीसी से बातचीत में दावा किया, "चार जून की शाम बीजेपी संगठन के एक शीर्ष नेता और एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री दिल्ली में संघ के दफ़्तर मिलने गए. संघ की ओर से कहा गया कि आप संसदीय दल की बैठक बुलाकर अपना नेता चुन लीजिए. ये बात संघ ने बहुत हल्के से कही. इस बात को जब आगे बताया गया तो इशारे को समझ लिया गया.''

इसके बाद बीजेपी संसदीय दल की बैठक नहीं बुलाई गई बल्कि एनडीए की बैठक हुई.

बीजेपी की वेबसाइट पर भी 2024 चुनावी नतीजे आने के बाद बीजेपी संसदीय दल नहीं, एनडीए की बैठक से जुड़ी प्रेस रिलीज़ जारी की गई. वहीं, 2019 में 303 सीटें जीतने के बाद चुनावी नतीजों के अगले दिन 24 मई को बीजेपी संसदीय दल की बैठक हुई थी न कि एनडीए की बैठक.

सूत्रों के किए दावे के मुताबिक़, ''संघ के लोगों का अनौपचारिक रूप से ये कहना रहता है कि 240 सीटों में से 140 सांसद हमारे हैं. अगर बीजेपी की बैठक होती तो उसमें ये शायद ना चुने जाते इसलिए इन्होंने वो बैठक ही नहीं बुलाई. अगले दिन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश को बुलाकर पत्र वगैरह लेकर एनडीए का मामला शुरू कर दिया. ये चीज़ भी संघ को अच्छी नहीं लगी कि आपने अपने आपको थोप दिया."


5 जून 2024 को प्रधानमंत्री आवास पर एनडीए नेताओं की बैठक हुई थी.


संघ की नाराज़गी और मनाने की कोशिश
संघ की समझ रखने वाले लोगों की मानें तो आरएसएस व्यक्ति से ज़्यादा विचार या संगठन को महत्व देता है.

'द आरएसएस- आइकन्स ऑफ इंडियन राइट' किताब के लेखक और वरिष्ठ पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने बीबीसी हिंदी से कहा, "एक चीज़ जो साफ़ है कि मोदी जी से नाराज़गी दिख रही है. संघ के झुकाव से पहले ये अहम है कि जो पीछे से हाथ रखा हुआ था, वो हटता दिख रहा है. ज़्यादा बड़ी ख़बर ये है. संघ मोदी का नाम लिए बगैर आलोचना कर रहा है."

लेकिन ऐसा मानना सही नहीं होगा कि मोदी और संघ के बीच दूरी बहुत बढ़ गई हो.

2024 चुनाव प्रचार के दौरान 10 साल में पहली बार मोदी के नागपुर में रात बिताने की भी ख़बरें आईं.

मुखोपाध्याय कहते हैं, "व्यक्ति को संगठन से ज़्यादा महत्व देना, पूरे मोदी कल्ट का प्रमोशन नाराज़गी का एक बड़ा कारण था."

जेपी नड्डा मोदी और शाह के आदमी माने जाते हैं. ऐसे में नड्डा के सक्षम होने वाले बयान को भी गंभीरता से लिया गया और इसे उनका पूरी तरह निजी बयान नहीं माना गया.

हालांकि जुलाई 2024 में बीजेपी की ओर से संघ के साथ रिश्तों में मिठास घोलने की कोशिश भी होती दिखी.

मोदी सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के संघ का सदस्य होने पर लगे पांच दशक पुराने प्रतिबंध को हटा दिया.

संघ-बीजेपी से जुड़े सूत्रों ने बताया, "बीजेपी दिखाना चाहती है कि कम सीटें आने से कुछ नहीं बदला. न कोई मंत्री बदला, न स्पीकर बदला, न अध्यक्ष बदले मगर बीजेपी जानती है कि संघ नाराज़ है. बीजेपी ने बिना पूरा झुके संघ को थोड़ा पुचकार दिया है."

संघ के प्रवक्ता सुनील आंबेकर ने सरकार के कदम की तारीफ़ भी की.

मगर संभवत: संघ की नाराज़गी इतनी ज़्यादा थी कि 9 जुलाई के जारी इस आदेश के बाद भागवत ने 18 जुलाई को सुपरमैन और भगवान वाला बयान जारी किया.

मुखोपाध्याय कहते हैं, "इस बैन को हटाने के बाद भागवत ने जो बयान दिया, उससे लगता है कि मोदी जी को जो लाभ मिलना चाहिए था, मिला नहीं है. संघ के बयानों को ध्यान से देखते रहने की ज़रूरत है. देखना ये भी चाहिए कि आलोचना कब किसी और को बैठाने के खुले निमंत्रण के तौर पर बदल जाती है."


राहुल गांधी और अखिलेश यादव

तलाश, तैयारी और तकरार
एक तरफ़ संघ की ओर से ऐसे इशारे आना कि वे नरेंद्र मोदी से नाराज़ हैं, दूसरी ओर देश के राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर राहुल गांधी, अखिलेश यादव जैसे नेताओं का उभरना.

फिर मोदी की बढ़ती उम्र का तकाज़ा, जनता का बदलता रुझान और सहयोगियों के सहारे चलती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार.

इन वजहों के बारे में जानकारों का कहना है कि अभी हाल फिलहाल मोदी को हटाने जैसा तो कुछ नहीं होगा, मगर अगले चेहरे की तलाश, तैयारी और तकरारें शुरू हो चुकी हैं.

बीते दिनों यूपी में योगी आदित्यनाथ को लेकर जैसी अटकलें लगाई गईं, उससे इस बात को और मज़बूती मिली है.

यूपी में बीजेपी के एक विधायक ने बीबीसी हिंदी से कहा, "आज की तारीख़ में चौराहे पर बैठे आदमी को भी पता है कि बाबा (योगी) कोई काम करते हैं तो दिल्ली से नंबर-2 (शाह) डिस्टर्ब कर देते हैं."

इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ पंकज कुमार ने बीबीसी से कहा था-''अमित शाह भी ताक में हैं कि कैसे योगी को हटाया जाए. उनको सही मौक़ा नहीं मिल पा रहा. अमित शाह की प्रबंधन की शक्तियां होंगी लेकिन जनता की नज़र में शाह कहीं खरे नहीं उतरते.''

बीजेपी पर नज़र रखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं, ''बीजेपी जिन वोटर्स के बीच पसंद की जाती है, वहां मोदी के बाद योगी ही हैं. न सिर्फ़ यूपी बल्कि दूसरे राज्यों में भी. योगी की अपील अमित शाह से ज़्यादा है. ये बात योगी को भी पता है.''

योगी आदित्यनाथ बीजेपी के स्टार प्रचारकों में शामिल हैं. नाथ संप्रदाय के अहम गोरखधाम मठ के महंत होने के कारण भी योगी की देश के अलग-अलग हिस्सों में लोकप्रियता है.

संघ के प्रति झुकाव रखने वाले डॉ. सुर्वोकमल दत्ता कहते हैं, "किसी भी गतिशील पार्टी में इसको लड़ाई नहीं, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कहते हैं. ये होना ज़रूरी भी है और सकारात्मक होता है."


अमित शाह और योगी आदित्यनाथ

योगी बनाम शाह?
हमने संघ, बीजेपी, सूत्रों और कई वरिष्ठ पत्रकारों से बात की. ज़्यादातर का कहना है कि अभी जो लड़ाई है, वो योगी और शाह के बीच ही दिखती है.

ऐसे में संघ किस ओर नज़र आता है?
एक दैनिक अखबार के संपादक ने बीबीसी हिंदी से कहा- ''संघ योगी के साथ है. नंबर-2 चाहते हैं कि योगी हट जाए तो लड़ाई ही ख़त्म हो जाएगी. पर संघ का हाथ योगी के साथ इतना मज़बूती के साथ है कि उनका हटना कुछ मुश्किल है.''

बीजेपी से जुड़े सूत्र बताते हैं, ''मोदी चाहते हैं कि अमित शाह ही मेरी जगह लें. इधर से शाह योगी के काम में दखल देते हैं. उधर योगी इनके अपनों को झटका देते हैं.''

वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर खींचतान. यूपी में स्मार्ट मीटर की रेस में अदानी का होना और उसका टेंडर का रद्द होना.

ये कुछ ऐसे वाकये हैं, जिनके ज़रिए योगी बनाम मोदी सरकार की दूरियों की ओर इशारा किया जाता है.

वरिष्ठ पत्रकार राकेश मोहन चतुर्वेदी कहते हैं, ''अभी जो नाम हैं, उनमें योगी और शाह का नाम आता है. योगी हिंदुत्व का चेहरा हैं. वहीं मोदी की योजनाओं को लागू करने में शाह की अहम भूमिका रही है. ''

नितिन गडकरी को 2009 में बीजेपी अध्यक्ष बनाना हो, योगी को यूपी में सीएम बनाना हो या जून 2005 में मोहम्मद अली जिन्ना को सेक्यूलर बताने के बाद आडवाणी से बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी छीनना.

बीजेपी से जुड़े बड़े फैसलों के पीछे संघ रहा है.

योगी और शाह का ज़िक्र करते हुए पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ''मुझे लगता है कि जब भी फ़ैसला होगा वो संघ की सहमति से दिशा-निर्देश और आपसी बातचीत से तय हो सकता है.''


संघ प्रमुख मोहन भागवत

संघ का झुकाव किस ओर
ऐसे में अब सवाल ये है कि अगर योगी बनाम शाह की अटकलों को सही माना जाए तो संघ का झुकाव किस ओर होगा?

संघ आधिकारिक या सार्वजनिक तौर पर इन मुद्दों पर टिप्पणी नहीं करता है.

संघ में अहम पद की ज़िम्मेदारी संभाल रहे एक शख़्स ने बीबीसी हिंदी से नाम न छापने की शर्त पर कहा, ''जब समय आएगा जिसके बारे में सहमति बनेगी, बीजेपी तय कर लेगी. इन सारे विषय में उस समय बीजेपी को कोई सहयोग चाहिए होगा तो संघ के अधिकारी उनसे संपर्क में रहते हैं. इस विषय पर वो बात रखेंगे. जो सुझाव देना होगा, वो सुझाव देंगे. अंतिम निर्णय बीजेपी को करना होगा.''

वो बोले, ''हमें नहीं लगता कि कोई परिवर्तन हो रहा है. बातचीत लोग करते रहेंगे, अपने अंदाज़े लगाते रहेंगे.''

इसी अंदाज़े के बारे में हमने संघ समर्थक डॉ. सुर्वोकमल दत्ता से पूछा.

डॉ. सुर्वोकमल दत्ता कहते हैं, ''मुख्य रूप से अगर देखा जाए तो मैं समझता हूं कि महंत योगी आदित्यनाथ जी हैं. उनके साथ-साथ हिमंत बिस्वा सरमा, शिवराज सिंह चौहान, पीयूष गोयल, अनुराग ठाकुर जैसे कई नेता हैं...'

आपने कई नाम लिए, मगर अमित शाह का नाम नहीं लिया?

इस सवाल पर डॉ दत्ता जवाब जेते हैं, ''मैं समझता हूं कि अमित शाह जी मोदी जी के बाद दूसरे नंबर पर हैं, कहीं न कहीं पूरे देश में उनकी पहचान है. उनकी छवि, यूएसपी बहुत हार्डकोर नेता की है. उनको सेकेंड लाइन में गिनना उचित नहीं है.''


मोहन भागवत और योगी आदित्यनाथ


योगी और शाह: संघ की नज़र से
अमित शाह की बीजेपी संगठन के अंदर मज़बूत पकड़ है.

सूत्रों के मुताबिक़, शाह का मानना है कि संगठन में ज़्यादा से ज़्यादा अपने लोग ही हो जाएं ताकि अगर कल को ज़रूरत पड़ती है तो पार्टी में ज़्यादा लोग शाह के पक्ष में बोलें.

शाह और मोदी को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता. दोनों पुराने साथी हैं.

हालांकि शाह के बारे में जानकारों का कहना है कि उनके साथ जाति या लोकप्रियता वाले फैक्टर नहीं हैं, जो योगी के साथ हैं.

वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने बीबीसी से कहा, ''योगी आदित्यनाथ संगठन से उठे व्यक्ति नहीं है. उनका बीजेपी में हस्तक्षेप या भूमिका कभी नहीं रही है. संगठन में जो पदाधिकारी हैं, वो योगी को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं.''

योगी आदित्यनाथ के पीछे संघ की भूमिका पर अतुल चंद्रा और शरत प्रधान अपनी किताब में विस्तार से लिखते हैं.

अपनी किताब 'योगी आदित्यनाथ' में वो लिखते हैं- हिंदुत्व की मुखर और मज़बूत आवाज़ होने के कारण योगी आदित्यनाथ को संघ प्रमुख मोहन भागवत का आशीर्वाद हासिल है.

किताब के मुताबिक़, ''2017 में भागवत ने ही मोदी को मनाया था कि यूपी में आईआईटी ग्रेजुएट नेता मनोज सिन्हा से बेहतर राजनीतिक दाव भगवाधारी महंत योगी आदित्यनाथ होंगे. इससे पार्टी का हिंदुत्व का एजेंडा यूपी में साफ हो सकेगा.''

योगी यूपी और भारत के हिंदू राष्ट्र होने या बनाए जाने को लेकर बयान देते रहे हैं.

'माया, मोदी, आज़ाद' किताब के लेखक, राजनीतिक मामलों की जानकार सुधा पाई और सज्जन कुमार ने 2017 में एक लेख लिखा था.

इस लेख के मुताबिक़, ''बीजेपी-संघ का लक्ष्य सिर्फ़ चुनाव जीतना नहीं है बल्कि भारत को ज़्यादा हिंदू बनाना है. आइडिया है कि बड़े दंगों के बिना आम लोगों की नज़र में हिंदुत्व को स्वीकार्य बनाया जाए और मुसलमानों को दूसरे की तरह पेश किया जाए. योगी आदित्यनाथ ये काम सफलतापूर्वक करते रहे हैं. ऐसे में संघ ने योगी को इस मामले में एक सफल व्यक्ति माना.''

पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ''बीजेपी योगी को पूरे देश में प्रचार के लिए भेजती है. वहीं यूपी में हुए सत्ता संघर्ष में संघ योगी के साथ खड़ा दिखाई दिया. ऐसे में योगी की संभावनाएं बेहतर दिखती हैं.''

मगर योगी, शाह की संभावनाओं के बीच कुछ दूसरे नाम और बदलती सियासत पर भी गौर करना होगा.


नरेंद्र मोदी


हिंदुत्व या जाति
लोकसभा चुनाव 2024 में जाति एक अहम मुद्दा रहा है. राहुल गांधी समेत कई विपक्षी नेता अब भी जातीय जनगणना का मुद्दा लगातार उठा रहे हैं.

यूपी के नतीजों में समाजवादी पार्टी की कामयाबी में पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक गठजोड़ को काफ़ी अहम माना जा रहा है.

बीते 10 साल की राजनीति हिंदुत्व के रथ पर सवार दिखी थी मगर अब भारतीय राजनीति अपना रथ बदलती दिख रही है.

बीबीसी हिंदी के शो द लेंस में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने कहा- राजनीतिक मुद्दे के तौर पर धर्म पीछे और जाति आगे आती दिख रही है.

जानकारों की मानें तो अगर हार्ड हिंदुत्व का टेम्प्लेट बदल गया और लोकसभा चुनाव की तरह बीजेपी ढलान पर जाती रही तो मोदी-योगी का टेम्प्लेट बदलना शुरू हो जाएगा. मुद्दा बदल गया तो संघ किसी तीसरे को भी ला सकता है.

मोदी, योगी, शाह नहीं तो फिर और कौन?
वरिष्ठ पत्रकार राकेश मोहन चतुर्वेदी कहते हैं, ''एक गडकरी और दूसरे राजनाथ सिंह. दोनों लोग पहले पार्टी अध्यक्ष भी रहे हैं. राजनाथ मोदी की उम्र के हैं. गडकरी थोड़े युवा हैं. वो लोकप्रिय भी हैं और संघ से रिश्ते भी हैं. शिवराज सिंह चौहान इतने लंबे समय तक सीएम रहे, तो वो भी लोकप्रिय नेताओं में हैं. उनकी भी काफी संभावनाएं हैं.''

हालांकि पार्टी से जुड़े सूत्रों ने दावा किया, ''बीजेपी के अंदर मोदी, शाह ने अपने लोग भर दिए हैं. वो लोग गडकरी, शिवराज सिंह को आगे नहीं करेंगे.''

पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ''सवाल ये है कि क्या हिंदुत्व की राजनीति ही प्रमुख रहेगी या दूसरी जो पिछड़ों, ओबीसी की राजनीति है वो असर डालती है? ये दो चीज़ें भी उत्तराधिकारी के नाम पर असर डालेंगी. जातिगत राजनीति के आगे आने पर अभी उपलब्ध नामों में शिवराज सिंह चौहान का नाम आगे दिखता है.''




2029, संघ, बीजेपी और उत्तराधिकारी
उत्तराधिकारी अकसर अपनों को बनाया जाता है और राजनीति में अपने की परिभाषा बदलती रहती है.

पत्रकार पूर्णिमा जोशी कहती हैं- मोदी जैसे नेता किसी दूसरे को पनपने नहीं देते.

मगर यहीं से संघ की भूमिका और तैयारी शुरू होती है.

नीलांजन मुखोपाध्याय कहते हैं, ''संघ और बीजेपी के बीच आज की तारीख़ में हनीमून नहीं है. संघ से जुड़े संगठन एबीवीपी, ट्रेड यूनियन, किसान संगठन जनता की नाराज़गी को किस कदर व्यक्त कर रहे हैं, इनको समझने की ज़रूरत है.''

समझने के इसी क्रम में कुछ दिन पीछे चलते हैं.

27 जुलाई 2024. दिल्ली में मुख्यमंत्री परिषद की बैठक.

अनजाने में ही सही मगर अमित शाह और योगी आदित्यनाथ मेज़ पर एक-दूसरे के क़रीब आमने-सामने ही थे.

दोनों नेताओं के बीच में नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा बैठे हुए थे.

ये तस्वीर कुछ लोगों को किसी रेस की शुरुआती लाइन वाला वो पल लग सकती है, जिसके बाद एक ज़ोर की खटैक आवाज़ होगी और नंबर एक बनने की रेस शुरू हो जाएगी.

राजनीति के 'ओलंपिक' में अकसर वो खिलाड़ी गोल्ड मेडल जीत जाते हैं, जो रेस में दौड़ते दिख ही नहीं रहे होते हैं.





































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