Ad Code

Responsive Advertisement

LOK ADALAT - लोक अदालत क्या है ? जानें प्रक्रिया



Credit by Live Law

मामलों का त्वरित विचारण व्यक्ति का मूल अधिकार है। विचारण अथवा न्याय में विलम्ब से व्यक्ति की न्यायपालिका के प्रति आस्था में गिरावट आने लगती है। अतः त्वरित विचारण की दिशा में कदम उठाने की अनुशंसा की गई है। यह निर्विवाद है कि आज विचारण में अत्यधिक एवं अनावश्यक विलम्ब होता है। लोगों को वर्षों तक न्याय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कई बार तो स्थिति यह बन जाती है कि पक्षकार मर जाता है लेकिन कार्यवाही जीवित रहती है।

इस स्थिति से निपटने के लिए हालांकि समय-समय पर प्रयास किये जाते रहे हैं। फास्ट ट्रेक न्यायालय भी स्थापित किये गये तो दूसरी तरफ लोक अदालत व्यवस्था पर भी विचार रखे गए। भारत में किसी समय पंचायतों से आपसी सहमति से मामले निपटाए जाते थे, लेखक प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी पंच परमेश्वर भी इस पर ध्यान आकर्षित करती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि लोक अदालत भारत की पुरानी व्यवस्था है। लोक अदालत विषय पर इस आलेख में प्रकाश डाला जा रहा है।

वस्तुतः लोक अदालत एक ऐसी अदालत है जिसमें मामलों (विवादों) का निपटारा पक्षकारों की पारस्परिक सहमति से किया जाता है। इसमें न किसी पक्षकार की जीत होती है और न हार। दोनों पक्षों में पुनः स्नेह, सौहार्द्र एवं बंधुत्व का भाव उत्पन्न हो जाता है।

 इसीलिए लोक अदालत के बारे में यह कहा जाता है - (i) यह जनता की अदालत है; 

(i) यह सुलह एवं समझौते का मंच है तथा 

(iii) शीघ्र एवं सस्ते न्याय का स्रोत हैं। विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 में लोक अदालतों के बारे में प्रावधान किया गया है। लोक अदालतों का गठन अधिनियम की धारा 19(2) में लोक अदालतों के गठन के बारे में प्रावधान किया गया है।

इसके अनुसार लोक अदालतों का गठन निम्नांकित से मिलकर होता है- 

(क) सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश, तथा 

(ख) अन्य व्यक्ति। लोक अदालतों का पीठासीन अधिकारी सेवारत या सेवानिवृत्त न्यायाधीश होता है। 

अन्य व्यक्ति में ऐसे व्यक्ति होते हैं, जिन्हें- 

(क) कला; 

(ख) साहित्य: 

(ग) संस्कृति 

(प) विधि; 

(ङ) न्याय 

(च) समाज सेवा 

(छ) पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में काम करने का विशिष्ट ज्ञान एवं अनुभव होता है। इनमें महिलाओं का भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व होता है। यह सभी व्यक्ति मिलकर पक्षकारों में राजीनामा कराने का प्रयास करते हैं।

अधिकारिता 

अधिनियम की धारा 19 (5) के अनुसार लोक अदालतें ऐसे सभी मामलों में राजीनामों एवं समझौतों का प्रयास कर सकती है, जो, 

(i) उनके समक्ष लम्बित या विचाराधीन है; अथवा 

(ii) उनकी अधिकारिता में आते हैं लेकिन ये अभी न्यायालय में नहीं लाये गये हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि लोक अदालतों द्वारा विचारण से पूर्व भी विवादों का निपटारा किया जा सकता है। 

इसे 'विचारणपूर्व सुलह एवं समझौते की संज्ञा दी गई है। जहाँ तक आपराधिक मामलों में समझौते का प्रश्न है, लोक अदालतों की अधिकारिता में केवल ऐसे मामले आते हैं जो 'राजीनामायोग्य' है।

 ऐसे मामलों का उल्लेख दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 320 में किया गया है। धारा 320 की परिधि में आने वाले मामलों का राजीनामों के माध्यम से निपटारा किया जा सकता है।

ऐसे मामले, जो राजीनामें योग्य नहीं है, लोक अदालतों द्वारा 

(i) न तो तय किये जा सकते हैं और

 (ii) न उन्हें राजीनामें योग्य बनाया जा सकता है।

गुलाबदास बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ऐसे मामलों में राजीनामा नहीं किया जा सकता जो धारा 320 की परिधि में नहीं आते हैं चाहे उनमें पक्षकारों में समझौता हो क्यों न हो गया हो। ऐसे मामलों में सजा की मात्रा पर विचार किया जा सकता है। 

उदाहरणार्थ- राजेन्द्र हरकचन्द्र भण्डारी बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के मामले में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अपराध में राजीनामा करने की अनुमति नहीं दी गई लेकिन अभियुक्त को इस पर छोड़ा गया, क्योंकि,

 (i) मामला 20 वर्ष पुराना था,

 (ii) पक्षकार कृषक थे, तथा

 (a) उनके बीच समझौता हो गया था। भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 324 एवं परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अन्तर्गत चैक अनादरण के मामलों में राजीनामा करने की अनुमति प्रदान की गई है। लेकिन अवैध गर्भपात के मामलों में राजीनामा करने की अनुमति प्रदान नहीं की गई। राजीनामों का प्रभाव अभियुक्त को दोषमुक्ति होता है। 

शक्तियाँ 

विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 22 में लोक अदालत की शक्तियों का उल्लेख किया गया है। लोक अदालतों को 'सिविल न्यायालय' माना गया है और उन्हें सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अन्तर्गत सिविल न्यायालय की निम्नांकित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।

 (i) साक्षियों को समन करना तथा उनका शपथ पर परीक्षण करना; 

(ii) दस्तावेजों का प्रस्तुतीकरण एवं प्रकटीकरण: 

(iii) शपथ पत्रों पर साक्ष्य का ग्रहण; 

(iv) लोक दस्तावेजों की अध्यपेक्षा किया जाना तथा

 (v) अन्य ऐसी शक्तियाँ जो विहित की जायें। 

लोक अदालतों की कार्यवाहियों को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 193, 219 एवं 228 के प्रयोजनार्थ 'न्यायिक कार्यवाहियाँ' माना गया है। इन्हें दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 एवं अध्याय 26 के अर्थान्तर्गत 'सिविल न्यायालय' का स्वरूप प्रदान किया गया है। 

प्रक्रिया - 

अधिनियम की धारा 20 में लोक अदालतों की कार्यप्रणाली का उल्लेख किया गया है। 

इस अनुसार, 

(i) जहाँ कोई पक्षकार अपने मामले का निपटारा लोक अदालत के माध्यम से करना चाहता है, वहाँ ऐसे पक्षकार को सम्बन्धित न्यायालय में इस आशय का प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करना और यह अनुरोध करना होगा कि उसका मामला लोक अदालत में भेजा जाये। 

(ii) ऐसा प्रार्थनापत्र प्राप्त होने पर न्यायालय द्वारा उस पर विचार किया जायेगा और विचार के पश्चात् यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि 

(क) उस मामले में पक्षकारों में राजीनामा होने की सम्भावना है, अथवा

 (ख) मामला लोक अदालत में भेजे जाने तथा वह लोक अदालत द्वारा सुनवाई किये जाने योग्य है तो मामला लोक अदालत में प्रेषित कर दिया जायेगा।

 (ii) लोक अदालत में मामला प्रेषित किये जाने से पूर्व विपक्षी को सुनवाई का अवसर प्रदान किया जायेगा।

 (iv) मामला लोक अदालत में आ जाने पर दोनों पक्षकारों को सुना जायेगा तथा उनमें राजीनामा कराने का प्रयास किया जायेगा।

 (v) राजीनामे का प्रयास करते समय लोक अदालतों को

 (क) साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्तःकरण, तथा 

(ख) नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों, का अनुसरण करना होगा। 

(vi) यदि लोक अदालत द्वारा मामले का राजीनामे द्वारा निपटारा हो जाता है तो मामले में निर्णय पारित किया जायेगा और ऐसे निर्णय का प्रभाव अभियुक्त की दोषमुक्ति होगा

(vii) यदि राजीनामा नहीं होता है तो मामला पुनः उसी न्यायालय में लौटा दिया जायेगा जहाँ से वह आया था। 

(viii) इस आशय की सूचना दोनों पक्षकारों को दी जायेगी और अपेक्षा की जायेगी कि वे उस न्यायालय से अनुरोध करें या उपचार प्राप्त करें। 

(ix) उस न्यायालय द्वारा ऐसे मामले की सुनवाई उसी स्तर से प्रारम्भ की जायेगी जिस स्तर से वह मामला लोक अदालत में भेजा गया था।


Ad code

1 / 7
2 / 7
3 / 7
4 / 7
5 / 7
6 / 7
7 / 7

ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer ad inner footer

Ad Code

Responsive Advertisement