छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के सबसे वरिष्ठ आदिवासी नेता नंद कुमार साय के पार्टी छोड़ने और कांग्रेस पार्टी में शामिल होने के फ़ैसले ने राज्य की राजनीति गरमा दी है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क़रीबी माने जाने वाले नंद कुमार साय ने ऐसे समय में पार्टी छोड़ी है, जब राज्य में छह महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं.
रविवार की शाम उनके इस्तीफ़े की चिट्ठी सार्वजनिक होते ही रायपुर में एक तरफ़ जहां भारतीय जनता पार्टी के दफ़्तर में नेताओं की बैठक शुरू हो गई, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के नेता भी कार्यालय में जुटने लगे.
भारतीय जनता पार्टी की स्थापना काल से ही जुड़े, नंद कुमार साय ने अपने इस्तीफ़े में लिखा-"पिछले कुछ वर्षों से भारतीय जनता पार्टी में मेरी छवि धूमिल करने के उद्देश्य से मेरे विरुद्ध अपनी ही पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंदियों द्वारा षड्यंत्रपूर्वक मिथ्या आरोप एवं अन्य गतिविधियों द्वारा लगातार मेरी गरिमा को ठेस पहुंचाया जा रहा है."
साय के पार्टी छोड़ने पर, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के हैंडल से तुरंत टिप्पणी की गई- "आज श्री नंद कुमार साय जी ने अपने साथ-साथ आदिवासियों के "मन की बात" भी कह दी है."
घंटे भर के भीतर ही कांग्रेस पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम ने उन्हें कांग्रेस पार्टी में शामिल होने का न्यौता भी दे दिया.
दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह और भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव यही दावा करते रहे कि उनसे बात की जाएगी और उन्हें मना लिया जाएगा.
थामा कांग्रेस का हाथ
लेकिन 24 घंटे के भीतर ही नंद कुमार साय ढोल-नगाड़ों के शोर के बीच कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए.
साय ने कांग्रेस प्रवेश के बाद कहा, "अटल,आडवाणी की जो पार्टी थी, वो पार्टी अब उस रूप में नहीं है. परिस्थितियां बदल चुकी हैं. दल महत्वपूर्ण नहीं है, आम जनता से लिए काम करना है. मिलकर काम करेंगे तो छत्तीसगढ़ अच्छा होगा."
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने उन्हें कांग्रेस पार्टी की सदस्यता दिलाने के बाद कहा कि आज अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस है और ऐसे समय में जिन्होंने गरीबों और आदिवासियों के लिए संघर्ष किया, ऐसे नंद कुमार साय आज कांग्रेस में शामिल हुए हैं, वह सच्चे आदिवासी नेता हैं.
हालांकि भारतीय जनता पार्टी को अब भी साय पर भरोसा है.
उनके कांग्रेस प्रवेश के बाद भाजपा के सांसद और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विष्णुदेव साय ने कहा, "हमें आज भी अपने वरिष्ठ नेता के मान-सम्मान की अधिक चिंता है...भाजपा परिवार उनका घर है, सदैव उनका इस परिवार में स्वागत रहेगा. पार्टी का दरवाज़ा उनके लिए खुला है और रहेगा भी."
अपने बयान में विष्णुदेव साय ने कहा कि साय जी जैसे वरिष्ठतम नेता इस तरह कांग्रेस जैसी पार्टी के ट्रैप में फंस जाएंगे, भरोसा नहीं हो रहा है.
विष्णुदेव साय ने कहा, "आशंका यह भी है कि कहीं किसी तरह से उन्हें ब्लैकमेल तो नहीं किया गया है. इस बात की जांच होनी चाहिए कि वे किसी अनुचित दबाव के कारण तो ऐसा नहीं कर रहे... पार्टी को अब भी उम्मीद है कि वह नंद कुमार साय को मना लेगी."
कांग्रेस-भाजपा को नफ़ा-नुकसान
32 फ़ीसदी आदिवासी आबादी वाले छत्तीसगढ़ में, विधानसभा की 90 में से 29 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. ऐसे में नंद कुमार साय के भारतीय जनता पार्टी छोड़ कर कांग्रेस पार्टी में शामिल होने के नफ़ा-नुकसान पर बहस शुरू हो गई है.
छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार दिवाकर मुक्तिबोध के मुताबिक, "पांच बार के सांसद और एक आयोग के अध्यक्ष के तौर पर केंद्र में सक्रिय होने के कारण नंद कुमार साय की, राज्य की राजनीति में पकड़ पहले की तरह मज़बूत नहीं रही है. वे भारतीय जनता पार्टी के भीतर छत्तीसगढ़ में सबसे बड़ा आदिवासी चेहरा ज़रुर रहे हैं लेकिन उनके बाद राज्य में कई नए आदिवासी चेहरों ने भारतीय जनता पार्टी के भीतर अपनी पहचान बनाई है."
दिवाकर मुक्तिबोध आगे कहते हैं, "पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य की 90 में भाजपा 14 सीटों पर सिमट कर रह गई है. 29 आदिवासी सीटों पर एक भी आदिवासी नेता भाजपा से जीत कर नहीं पहुंचा था. ऐसे में भाजपा के सामने दूसरी कई चुनौतियां हैं. नंद कुमार साय की राज्य की राजनीति में वैसी पकड़ अब नहीं रही, जैसी 2003 में थी."
लेकिन कांग्रेस के नेता साय के पार्टी प्रवेश से बेहद ख़ुश हैं.
आरएसएस में सक्रिय रहे नंद कुमार साय देश के उन थोड़े से आदिवासी नेताओं में हैं, जो संस्कृत भाषा के प्रेमी और विद्धान के तौर पर जाने जाते हैं. वो साल 2020 तक भारत में अनुसूचित जनजाति आयोग का अध्यक्ष रहे. इस पद पर रहते हुए उन्होंने संस्कृत को भारत की आधिकारिक भाषा बनाने को लेकर बहस छेड़ी थी.
रामचरितमानस जैसे कई ग्रंथों की एक-एक पंक्ति याद रखने वाले नंद कुमार साय, उत्तरी छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बीच एक जाना-पहचाना चेहरा रहा है. कांग्रेस पार्टी के नेताओं को लगता है कि उनके कांग्रेस में आने से पार्टी को लाभ मिलेगा.
छत्तीसगढ़ में कितना प्रभाव
राज्य सरकार के प्रवक्ता और वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद अक़बर कहते हैं, "उनके कांग्रेस में आने से पार्टी को बहुत फायदा मिलेगा, वे बहुत बड़े नेता हैं. 2003 तक जब अजीत जोगी की सरकार थी, उस समय ये नेता प्रतिपक्ष थे. इनका बहुत ही अच्छा परफार्मेंस था. हम लोग तो सोचते थे कि इनको अवसर मिलेगा. लेकिन भारतीय जनता पार्टी की सरकार आई तो डॉक्टर रमन सिंह मुख्यमंत्री बन गए. जबकि इनको अवसर मिलना चाहिए था."
वरिष्ठ पत्रकार और 'छत्तीसगढ़' अख़बार के संपादक सुनील कुमार का मानना है कि साय के कांग्रेस में आने से कांग्रेस को बड़ा फ़ायदा होगा. सुनील कुमार का कहना है कि वे पिछले 10-12 सालों से लगातार केंद्र की राजनीति में सक्रिय रहे हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में उनका प्रभाव बना हुआ है.
सुनील कुमार ने बीबीसी से कहा, "आदिवासी इलाक़ों में कांग्रेस लगातार परेशानी झेल रही थी. बस्तर के सिलगेर से लेकर सरगुजा के हसदेव अरण्य तक, सरकार के खिलाफ आंदोलन जारी है, मुद्दे सुलझ नहीं रहे हैं. इन इलाक़ों में धार्मिक तनाव से भी कांग्रेस परेशानी में थी."
"आदिवासी मोर्चे पर सरकार से नाराज़गी का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि भानुप्रतापपुर में हुए उपचुनाव में तीसरे नंबर के आदिवासी उम्मीदवार को 23 हज़ार से अधिक वोट मिले हैं. नंद कुमार साय के कांग्रेस में आने से, जिस सरगुजा संभाग से वे आते हैं, वहाँ तो फ़र्क़ पड़ेगा ही, बस्तर में भी उनका असर है."
53 साल से नमक नहीं खाया
सांसद, विधायक, नेता प्रतिपक्ष, प्रदेश अध्यक्ष जैसे पदों पर रह चुके नंद कुमार साय, राज्य में आदिवासी नेता के नाते मुख्यमंत्री पद के सबसे प्रबल दावेदार माने जाते रहे हैं.
साल 2000 में छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद से जब कभी मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी की बात हुई, उनका नाम ज़रूर सुर्खियों में रहा.
लेकिन राज्य की राजनीति के जानकार मानते हैं कि 15 साल की भारतीय जनता पार्टी की सरकार में लगातार साय को राज्य की राजनीति से बाहर रखा गया.
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल जशपुर के भगोरा गांव में 1946 में कंवर समुदाय में पैदा हुए नंद कुमार साय जब नौंवी की पढ़ाई कर रहे थे, उसी समय उनकी शादी कर दी गई.
साय ने बीबीसी से एक बातचीत में कहा था, "मैंने राजनीति शास्त्र में एमए किया. पढ़ाई करते समय ही छात्र राजनीति की शुरूआत हुई और मैं छात्रसंघ का अध्यक्ष बन गया. इसके बाद मैं शराब विरोधी आंदोलन में जुट गया. मुझे यह बात समझ में आ गई थी कि आदिवासियों को जानबूझ कर शराब में धकेला गया है. शराब किसी भी समाज या जाति की संस्कृति नहीं हो सकती."
नंद कुमार साय के मुताबिक, "23 सितंबर 1970 को डुमरमुड़ा गांव में शराब बेचने वालों की पहल पर आदिवासियों की बैठक बुलाई गई. मुझे तर्क दिया गया कि जैसे भोजन से नमक को अलग नहीं किया जा सकता, उसी तरह शराब आदिवासी की संस्कृति का हिस्सा है. आदिवासी को शराब से अलग नहीं किया जा सकता."
नंद कुमार साय को इस बैठक में चुनौती दी गई कि क्या वे भोजन से नमक छोड़ सकते हैं?
साय का दावा है, "मैंने उसी समय सबके सामने प्रतीज्ञा ली कि आज के बाद मैं अपने भोजन में नमक का उपयोग नहीं करुंगा. इस बात को 53 साल होने को आए. मैंने फिर कभी नमक को अपने भोजन में शामिल नहीं किया."
नंद कुमार साय को उनके इलाके में लोग लोक गायक के तौर पर जानते हैं. पढ़ाई में तेज़तर्रार होने की बदौलत 1973 में उनका चयन नायब तहसीलदार के पद पर हो गया था. लेकिन राजनीति से प्रेम के कारण उन्होंने वह नौकरी नहीं की.
विधायक, सांसद, पार्टी अध्यक्ष..
1977 में अपातकाल के बाद, जब अविभाजित मध्यप्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए तो उन्होंने नवगठित जनता पार्टी की टिकट पर तपकरा सीट से चुनाव लड़ा और वे चुनाव जीत गए.
1985 में वे फिर विधायक चुने गये और मध्यप्रदेश विधानसभा में उन्हें भाजपा विधायक दल का उपनेता बनाया गया.
1989 में नंद कुमार साय ने लोकसभा का चुनाव लड़ा और पहली बार संसद पहुंचे.
1996 में जब वे दोबारा सांसद बने तो उन्हें भारतीय जनता पार्टी की संसदीय दल का संयोजक बनाया गया.
1997 में उन्हें फिर राज्य की ज़िम्मेवारी सौंपी गई और वे मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बनाए गये. उस समय नरेंद्र मोदी मध्यप्रदेश के प्रभारी थे.
1998 में नंद कुमार साय फिर विधायक बने और
2000 में जब अलग छत्तीसगढ़ राज्य बना तो नरेंद्र मोदी को पर्यवेक्षक बना कर यहां भेजा गया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से रिश्ते
छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बनाए गए, नंद कुमार साय को स्थानीय स्तर पर पार्टी के कुछ नेताओं के विरोध के बाद भी नरेंद्र मोदी ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष बनाने की घोषणा की.
पार्टी के भीतर इस फ़ैसले का विरोध इस स्तर तक हुआ कि पार्टी दफ़्तर में जम कर तोड़फोड़, आगजनी हुई और नरेंद्र मोदी समेत दूसरे नेताओं को कमरों में बंद हो कर अपनी जान बचानी पड़ेगी. हालांकि पार्टी का फ़ैसला बरकरार रहा.
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी की अजीत जोगी की सरकार के ख़िलाफ़ नंद कुमार साय ने तीन साल सड़क पर लड़ाई लड़ी. पुलिस की लाठीचार्ज में साय का पैर टूट गया लेकिन साल भर तक पट्टी बांधे नंद कुमार साय राज्य भर में घूमते रहे.
2003 में जब छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव हुए तो नंद कुमार साय को अपनी परंपरागत सीट तपकरा के बजाय, तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी के ख़िलाफ़ मरवाही विधानसभा से चुनाव लड़ने के लिए कहा गया.
नंद कुमार साय 54,150 वोट से चुनाव हार गए
राज्य में भारतीय जनता पार्टी की सरकार तो बनी लेकिन मुख्यमंत्री की रेस से साय बाहर हो चुके थे. कुछ ही महीनों के भीतर, 2004 में लोकसभा का चुनाव हुआ और नंद कुमार साय तीसरी बार सांसद चुने गए.
अपनी ही सरकार की आलोचना के लिए चर्चित नंद कुमार साय को 2009 और 2010 में राज्यसभा का सदस्य बनाया गया. राज्यसभा का कार्यकाल ख़त्म हुआ तो 2017 में उन्हें राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का अध्यक्ष बनाया गया.
राज्य में 15 साल की सत्ता के बाद, 2018 में विधानसभा की 90 में से 14 सीटों पर सिमट चुकी भारतीय जनता पार्टी को, लगातार आंदोलनों के लिए चेताने वाले नंद कुमार साय सार्वजनिक तौर पर पिछले कुछ महीनों से अपनी नाराज़गी जता रहे थे.
उन्होंने मीडिया से साफ़-साफ़ कहा कि आदिवासी इलाकों में भारतीय जनता पार्टी की हालत ख़राब है और 2023 में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर पार्टी नेतृत्व को अभी से रणनीति बनानी चाहिए.
साय की कितनी सुनी गई, यह तो उनके इस्तीफ़े ने साफ़ कर दिया है लेकिन यह तो तय है कि इस इस्तीफ़े और कांग्रेस पार्टी में उनके शामिल होने के साथ ही छत्तीसगढ़ में चुनावी जोड़-तोड़, सीटों की गणना और राजनीतिक लाभ-हानि की जो चर्चा शुरू हुई है, वह सिलसिला अभी लंबा चलेगा.
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